 |
गांव के लिए क्या हो रहा है?
सुरिंदर एस जोधका
सारांश
हरियाणा के दो गाँवों में 20 वर्षों के अंतराल (1988-89 एवं 2008-09) के बाद दोबारा यात्रा पर आधारित यह पत्र सूक्ष्म परिपेक्ष्य में विकास एवं बदलाव की प्रक्रिया का ऐतिहासिक विवरण प्रदान करता है । हरित क्रान्ति की तकनीक के सन्दर्भ में दो गाँवों में देखे जाने वाले सामाजिक एवं आर्थिक बदलाव की प्रक्रिया को ध्यान में रखकर तथा बाद में उस क्षेत्र में बड़े पैमाने की औद्योगिक परियोजनाओं के शुरू होने की घटनाओं को प्रस्तुत करके यह कृषिक अर्थव्यवस्था की आतंरिक संरचना (जाति एवं वर्ण के सम्बन्ध) की प्रकृति, रोज़गार एवं इच्छाओं के सन्दर्भ में गाँवों के पडोसी शहरी रहवास इलाकों के साथ बदलते सम्बन्ध एवं स्थानीय स्तर के राजनैतिक संस्थानों में शक्ति के संबंधों के उभरने को समझने का प्रयास करता है ।
डाउनलोड
|
 |
समझना रुरलितिएस समकालीन बहस
मनीष ठाकुर
सारांश
गाँवों एवं गाँवों के अध्ययन के कम होते सामाजिक महत्त्व पर विद्वतापूर्ण बातें कहने एवं स्थान की कमी के सांस्कृतिक प्रवाह एवं प्रसार के मिश्रण के बारे में उत्तर औपनिवेशिक सैद्धांतिक चिंताएं व्यक्त करने के बीच यह पत्र गाँवों के अध्ययन के संभावित पुनःस्थापन की बात करता है । भले ही एक गाँव ग्रामीण/कृषि सम्बन्धी सामजिक परिवर्तन की बड़ी प्रक्रियाओं का काफी छोटा पात्र है, पर इसने सामाजिक शोध के बारे में ज़्यादा जानकारी ना देते हुए भी असल या माने हुए सात्विक तत्व के रूप में भी भारतीय समाजशास्त्र को संभाले रखा है । ज़ाहिर तौर पर गाँव अब पुराने समय की तरह नस्लीय कार्यक्षेत्र के लिए आसान कार्य प्रणालिय क्षेत्र नहीं रहा है, जिसका कारण हमारे समय में राज्य प्रणालियों का गहरा होते जाना एवं लोगों का शहरों की ओर अधिक मात्रा में रूख करना है । अब समय आ गया है कि हम प्रस्तुत विचारधारा पर नयी सैद्धांतिक वाम कार्य प्रणालिक चिंताओं का समावेश करें । ग्रामीण तौर तरीकों को समझने के लिए हमें नए स्थान एवं जानकारी के माध्यम की आवश्यकता है ।हमें शायद गाँव के पुराने सरपंच के साथ रहने की बजाय रेलवे प्लेटफार्म पर तम्बू गाड़कर रहने से गाँवों एवं गांववालों के बारे में अधिक जानने का मौक़ा मिलेगा । गाँवों की गतिविद्या को समझने के लिए हामी पंचायत, तालुका एवं जिले के मुख्यालय तथा स्थानीय थाने के सामान्य से अधिक दौरे करने होंगे । अतः गांववालों की निशानी ढूँढने का अर्थ निश्चित रूप से एकल गाँव अध्ययन होगा एवं बहुस्थानीय कार्य क्षेत्रीय गतिविधियों एवं राजनैतिक नस्लीकरण तक पहुँच रखेगा ।
डाउनलोड
|
 |
उम्माह, कौम और वतन
टैनवर फ़ायल
सारांश
वतन एवं कौम के बीच का टकराव एवं इस्लामिक उम्माह (मुस्लिम भाईचारे) की सार्वभौमिकता भारत में इस्लाम के सिद्धान्तविदों एवं मानने वालों में काफी गहरी एवं ज़िंदा रही है। भारत में मुस्लिमों की विद्यमानता के लिए धर्मशास्त्रिक पुष्टि की खोज के लिए एक तरफ भारतीय मुस्लिमों की प्रादेशिक सम्बद्धता के समन्वय एवं दूसरी तरफ उनकी अखिल इस्लामिकता के प्रति संभावित झुकाव की आवश्यकता है । आज़ादी के पूर्व के समय में इस अनिश्चित बहस के विविध रूप सामने आये: ए) मुस्लिम राष्ट्रीयता जिसकी वजह से बंटवारा हुआ; बी) प्रादेशिक राष्ट्रीयता जिसने हिन्दू मुस्लिम समाज की पहल की तथा; सी) इन दोनों का खंडन, अखिल इस्लामिक चलन। वृहत ऐतिहासिक घटनाओं को मद्देनज़र रखते हुए आप मुस्लिम राजनीति में तीन अलग अलग चरणों की पहचान कर सकते हैं । अल्पसंख्यकवाद का शुरूआती चरण जिसने राजनैतिक एवं सांस्कृतिक सुरक्षा का दावा किया; स्वतंत्रता के पूर्व के दशक का दूसरा चरण जब उत्तर भारत के मुस्लिमों के एक खंड में मुस्लिम राष्ट्र का सिद्धांत घर करने लगा एवं स्वतंत्रता के बाद का चरण जहां मुस्लिमों ने फिर से अल्पसंख्यकों के रूप में सांस्कृतिक अधिकारों के साथ बहुसांस्कृतिक सह्चार्यता पर जोर दिया । हाल के वर्षों मेंअल्पसंख्यकों के अन्दर अल्पसंख्यक की शक्तिशाली आवाज़, जो कि जाति एवं लिंग के चारों तरफ बुनी गयी है, राजनैतिक चर्चा एवं विवाद का विषय बनी है एवं मुस्लिम पहचान को अलग करके समझने की कोशिश की जा रही है । उम्माह, कौम एवं वतन के बीच की दरार एक बदली हुई परिस्थिति में विचारों में नवीनीकरण की मांग करती है एवं मुस्लिम विचारकों ने दोनों को अलग अलग सन्दर्भों में कार्यकारी बताकर एक दूसरे से अलग कर दिया तथा इस दौरान पहचान एवं वफादारी के अनुक्रम को भी नज़रंदाज़ किया। यह पत्र मुस्लिम राजनैतिक विचारों की विभिन्न गांठों को आंकलित रूप से खोलने का प्रयास करता है जिससे कि वे सन्दर्भ समाप्त ना हों जिनसे इनकी उत्पत्ति हुई एवं ये मुख्यधारा में आए । यह विभिन्न उतार चढ़ावों, सैद्धांतिक बदलावों, अनुकूलन एवं नवीनीकरण पर नज़र डालता है जिनके माध्यम से मुस्लिम कुलीन वर्ग अपनी विचारधारा की स्थिति से परे भारतीय राष्ट्रवाद के विचार से सहमत हुआ है ।
डाउनलोड
|
 |
अन्याय के राज्य: भारतीय राज्य और गरीबी
जॉन हैरिस
सारांश
यह पत्र गरीबी के सन्दर्भ में भारतीय राज्यों द्वारा उठाए गए कदमों का सूक्ष्म इतिहास बताता है एवं गरीबी की समस्या से जुड़ा कथन प्रदान करता है, क्योंकि यह एक स्वयंसिद्ध नज़रिया प्रस्तुत करता है कि भारी मात्रा में गरीबी का अर्थ सामाजिक न्याय के वादे का पूरा ना हो पाना है । इसके बाद यह अखिल गुप्ता के निरूपण की चर्चा करता है कि भारतीय राज्य क्यों गरीब लोगों की हत्या कर रहे हैं एवं इस बात पर बहस करता है कि अखिल का सिद्धान्तिकरण कोई ठोस एवं उपयुक्त व्याख्या प्रदान नहीं करता । अंत में पत्र यह सवाल पूछता है कि हाल में जारी किये गए अध्यादेश पत्र में पूछे गए सवालों का कहाँ तक जवाब दे पाने में सक्षम हैं ।
डाउनलोड
|
 |
दलितपने की जिरह: उत्तर औपनिवेशिक ओडिशा में अधीनस्थ समुदाय की शुरुआत
ब्यसा मोहरना
सारांश
संरचना एवं एजेंसी के दायरे में काम करते हुए यह पत्र इस बात का पता लगाना चाहता है कि आधुनिक भारत में दलित होने का क्या अर्थ होता है । इस बात से सहमत होते हुए कि सामाजिक संरचना एवं अधीनस्थ एजेंसियों के बीच द्वंदात्मक सम्बन्ध होते हैं, यह जिरह आधुनिक स्कालरशिप के रास्ते से गुजरती है एवं मुख्यधारा के "कौन दलित है एवं कौन नहीं" या "दलित का असल अभिकथन किसे कहते हैं एवं किसे नहीं " को लेकर राजनैतिक सिद्धान्तिकरण को चुनौती देता है ।
डाउनलोड
|
 |
सामजिक विरोध के असामान्य तरीके: जलपाईगुडी, भारत में काले जादू के आरोप
सोमा चौधरी
सारांश
यह पत्र राजनीति के नस्लीय आंकलन की महत्वपूर्ण परंपरा पर इसके संस्थापकों में से एक एफ जी बेली के माध्यम से एक नज़र डालता है । इसका उद्देश्य उन तरीकों का पता लगाना है जिनके माध्यम से उन्होंने समाज एवं राजनीति के मानविक अध्ययन में बाद में हुए विकास का अंदाजा पहले ही लगा लिया था । एफ जी बेली द्वारा पिछले छह दशकों में रचित विविध कार्य सामग्री पर दोबारा नज़र डालकर यह दिखाता है कि किस तरह प्रक्रियात्मक राजनैतिक आंकलन के बल पर बेली इस नतीजे पर पहुंचे थे कि तुलनात्मक स्थान विषयक एवं कालिक सन्दर्भों, राजनैतिक गतिविधियों की व्याख्या की अनिश्चित एवं पूरक प्रकृति, संस्थागत राजनीति की कार्य प्रणाली का प्रायोगिक तर्क एवं राजनीति में नीति एवं योग्यता के खेल की राजनैतिक गतीधियों में विशेष क्या था एवं सामान्य क्या । इसके अलावा यह भारत में राजनीति के आन्कालं के आधुनिक तर्कपूर्ण सन्दर्भ में उनके कार्य की परख करता है तथा उनकी कार्य प्रणालिक एवं सैद्धांतिक प्रतिभा को उभारकर भारत में वर्तमान में राजनैतिक समाजशास्त्र में चल रही विषयक चिंताओं की विरासत के रूप में प्रस्तुत किया गया है ।
डाउनलोड
|
 |
सामजिक विरोध के असामान्य तरीके: जलपाईगुडी, भारत में काले जादू के आरोप
सोमा चौधरी
सारांश
यह पत्र जलपाईगुडी चाय बागान में काले जादू की अनूठी कहानी पर नज़र डालने के लिए काफी आवश्यक सामाजिक संभाषण पर जोर डालता है । बागान में मजदूर एवं प्रबंधन के गूढ़ सम्बन्ध पर विस्तृत नज़र डालते हुए यह इस बात का पता लगाता है कि किस तरह आदिवासी मजदूरों के बीच होने वाली सामान्य लड़ाइयाँ, जिन्हें जादू टोने के आरोप में परिणत किया जाता है, मजदूरी अर्थव्यवस्था में फंसे कर्मचारियों के अकेलेपन का नतीजा है । इस पत्र के दो लक्ष्य हैं: पहला काले जादू के आरोपों एवं चुड़ैलों को पकड़ने के विषय पर सामजिक आंकलन की आवश्यकता पर जोर देना एवं दूसरा जलपाईगुडी के चाय बागान कर्मचारियों में काले जादू की समस्या को उठाना ।
डाउनलोड
|
 |
भारतीय समाजशास्त्र को अनूठा बनाना : आलोचनात्मक विचार विमर्श
पुष्पेश कुमार
सारांश
यह पत्र भारतीय समाजशास्त्र को अनूठा बनाने का एक प्रयास है, जिसके लिए इसमें अन्यथा दबाये जाते रहे 'पब्लिक्स' - लैंगिक अल्पसंख्यक - के दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया गया है, जिनका जीवन दक्षिण एशियाई समाजशास्त्र में स्थान पाने के लिए काफी दिनों से प्रतीक्षा कर रहा था । यह इस मिथक को भी तोड़ता है कि वैकल्पिक लैंगिक अनुकूलन होना पूरी तरह एक पश्चिमी विचार है एवं कामुक न्याय का मुद्दा भारतीय एवं दक्षिण एशियाई संस्कृतियों के लिए नया है । इसके अलावा अनूठेपन को यहाँ अनूठी कला, अवांत-गार्ड प्रयोग एवं जीवनशैली की पहचान वाली राजनीति के मध्यम से विरोध प्रदर्शन के रूप में ही नहीं दिखाया गया है, बल्कि एक समीक्षात्मक कामुकता दृष्टिकोण का पालन किया गया है जो मुख्य लैंगिक वस्तुओं जैसे कामकाजी लेस्बियन्स, हिजरा एवं कोठी के अनुभव को मुख्य तौर पर प्रस्तुत करके लैंगिक बदलाव एवं कामुक न्याय के एजेंडा का पालन करता है । इस तरह से एलजीबीटी आन्दोलन की जाति एवं श्रेणी के मुद्दे पर ना बोलने के लिए निंदा की जानी चाहिए ।यह पत्र लैंगिक स्वतंत्रता की श्रेणी, जाति एवं वैश्विक राजनीति के साथ अपनी जडें मज़बूत करके कामुक न्याय के सिद्धांत को और भी वृहत बनाने का लक्ष्य रखता है ।
डाउनलोड
|
 |
सामान एवं पब्लिक्स: क्रिस्चियनिया में राज्य-नागरिक सम्बन्ध के लिए गठजोड़
महुआ बंदोपाध्याय
सारांश
I 1971 की गर्मियों में कई डेनिश नागरिक, जिनमें अधिकतर बेघर एवं घुमक्कड़ प्रवृत्ति के लोग शामिल थे, कोपेनहेगेन के क्रिस्चियनशावन क्षेत्र में मिलिट्री के अधिकार में आने वाले खाली एवं सुन्दर क्षेत्र पर बैठे । कई सालों में उस क्षेत्र को फ्रीटाउन क्रिस्चियनिया के नाम से चिन्हित कर दिया गया, जो राज्य के साथ कई तरह की असंतोष के बावजूद एक सामाजिक प्रयोग था । 2011 में इस समाज ने राज्य के साथ एक ऐतिहासिक अनुबंध में उस भूमि, जिनपर ये बैठे थे, के अधिकतर क्षेत्र को खरीदने की बात की । इसके बाद क्रिस्चियनिया को एक संस्था द्वारा चलाया जाना था जिनमें क्रिस्चियनाइट्स एवं कुछ बाहरी लोग भी शामिल थे ।इस अनुबंध के अनुसार क्रिस्चियनाइट्स का उस भूमि पर पूर्ण अधिकार एवं नियंत्रण है, जहां ये पिछले चालीस वर्षों से रहते आये हैं । लोगों के क्रिस्चियनिया की वस्तुओं से सम्बन्ध हशीश एवं हशीश के बाज़ार के काफी मात्रा में मौजूद रहने से काफी गूढ़ हो जाते हैं । अतः यह पत्र समाज के दो तरह के वस्तु सम्बन्ध की बात करता है - भूमि से एवं इसके द्वारा पैदा हुए सम्बन्ध एवं हशीश के माध्यम से हुए सम्बन्ध ।
डाउनलोड
|