सीईएसपी परियोजना
द सेंटर फॉर इकॉनोमिक स्टडीज एंड प्लानिंग, जो स्कूल ऑफ़ सोशल साइंसेज का सबसे नया केंद्र है, ने 1973 में अपना एमए कार्यक्रम मात्र 6 लोगों की छोटी फैकल्टी (कृष्णा भरद्वाज, अमित भादुड़ी, अंजन मुखर्जी, उत्सा पटनायक, सुनंदा सेन एवं प्रभात पटनायक) से आरम्भ किया था। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की संरचना के अन्तर्गत, जिसकी स्थापना प्रगतिशील स्नातकोत्तर अध्ययन प्रदान करने के लिए हुई थी, इस नवस्थापित केंद्र के पास खुद का अकादमिक कार्यक्रम प्रारम्भ करने की स्वायत्तता थी। इस चुनौती का पालन इस छोटी परंतु ऊर्जावान फैकल्टी ने काफी प्रभावी रूप से किया। इस कार्यक्रम के आरम्भ से पहले कार्यक्रम के पैमाने एवं स्तर को लेकर काफी गंभीर एवं गहरी आलोचनाएं तथा विचार विमर्श हुए, जिसमें खासतौर पर कोर्स की संरचना, कोर्स के विषय तथा निर्देशों एवं आंकलन के तरीके प्रमुख हैं। Iइस कार्य के अन्तर्गत फैकल्टी ने केंद्र के बाहर विश्वविद्यालय के बाहर के विशेषज्ञों से भी विचार विमर्श किया;इनमें मुख्य रूप से प्रोफेसर के एन राज, दिवंगत प्रोफेसर सुखमय चक्रवर्ती एवं दिवंगत प्रोफेसर अजित बिस्वास का नाम प्रमुख है।
शिक्षण कार्यक्रम एवं निर्देश की विधि पर कार्य करने के लिए केंद्र ने पूर्ण दृढ़ता से भारत एवं विदेशो में अर्थव्यवस्था के शिक्षण के तत्कालीन चलन के अनुसार भारत में बुद्धिजीवी एवं सामाजिक परिवेश को ध्यान में रखते हुए उन वृहत उद्देश्यों एवं परिपेक्ष्यों की स्थापना की, जिसपर इस कार्यक्रम का लक्ष्य होना आवश्यक था। इसका उद्देश्य प्रभावी रूप से भी कहीं और होने वाले स्नातकोत्तर शिक्षण को दोहराना तथा उच्च शिक्षा के लिए खासकर बड़े शहरों में पहले से काफी मात्रा में मौजूद शिक्षण एवं शोध संस्थानों की संख्या में बढ़ोत्तरी करना नहीं था। केंद्र का उद्देश्य अर्थव्यवस्था के शिक्षण में प्रभावी एवं काफी मात्रा में मध्यवर्तन लाने का था तथा शिक्षण एवं शोध के उन चलनों को स्थापित करना था जो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सबसे ज़्यादा प्रभावी साबित हो रही थी।
ज़्यादातर विश्वविद्यालयों में, जहां अर्थव्यवस्था पढ़ाई जाती है, आर्थिक सिद्धांतों एवं प्रायोगिक या अनुभवजन्य कार्यों के बीच एक विभाजन रेखा सी खिंच गयी है, जिसके अन्तर्गत आर्थिक सिद्धांत पाठ्पुस्तकों से जुड़ा हुआ है, जहां ज्ञान दोहराव एवं भावात्मक तर्क पर आधारित है। अनुभवजन्य कार्य सैद्धांतिक कठोरता से परे होते हैं एवं कई बार ये सिर्फ संख्या के दस्तावेज़ बनकर रह जाते हैं। इसी के साथ कुछ प्रभावी अर्थमितीय कार्य सैद्धांतिक तत्वों की जानकारी के बिना कर लिए जाते हैं, जो आर्थिक सिद्धांत के ख़ास अनुमानों या प्रयोग किये हुए आंकलन की विशेष सांख्यिकी तकनीकों की ओर इंगित करती है। अर्थशास्त्र के शिक्षण एवं शोध में आर्थिक सिद्धांत एवं अनुभवजन्य कार्यों के बीच का यह विभाजन इतना अधिक कहीं भी नहीं है, जितना कि विकास की समस्याओं में, जहां ऐसी धारणा बनने लगी है कि भारतीय आर्थिक समस्याओं के आंकलन के लिए आर्थिक सिद्धांत अपनी उपयुक्तता खोने लगे हैं एवं अर्थशास्त्र पढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका सूक्ष्म स्तर पर तथ्यों का आंकलन करना है। जहां प्रायोगिक अर्थशास्त्रियों ने ठोस प्रभावों की खोज में सिद्धांतों को ठुकराया है, सिद्धांतवादियों में से शुद्धतावादियों ने, खासकर पश्चिमी विश्वविद्यालयों में, दूसरी तरफ गलतियां की: उन्होंने सिद्धांतों के लिए कठोर क्षेत्र का नाम देकर विकास को नकार दिया। हालांकि आर्थिक सिद्धांत का ऐतिहासिक अनुभव एवं अनुभवजन्य विवेचना के साथ काफी गहरा सम्बन्ध है। जब आप आर्थिक सिद्धांतों की ओर नज़र डालते हैं तो आपको विशेष ऐतिहासिक स्थितियों में उनकी उत्पत्ति के आधार पर उनके निर्माण, सामाजिक संबंधों की संकल्पना में उनकी सोच, अनुमानों की व्याख्या करती हुई तर्कपूर्ण संरचना, करणीय संबंधों के नियम तथा उनके आंकलित सन्दर्भ जो उस समस्या की व्याख्या करते हैं जिससे निपटने के लिए सिद्धांतों का निर्माण किया गया है, का सावधानीपूर्वक अध्ययन करना पड़ता है। जब हम इन बातों को ध्यान में रखते हुए उपलब्ध सिद्धांतों का अध्ययन करते हैं, तब हमें यह ज्ञात होता है कि जाने माने सिद्धांतविदों ने तीक्ष्ण परिज्ञान एवं तर्क की शक्ति के आधार पर अपने सिद्धांतों का निर्माण किया तथा ठोस सत्य के गूढ़पन को आंकलन करने योग्य आसान तार्किक संरचनाओं में परिणत किया। इस बात में कोई संदेह नहीं कि हमारे पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाने वाले आर्थिक सिद्धांतों का जन्म एवं विकास प्राथमिक रूप से पश्चिमी जगत में हुआ, सैद्धांतिक प्रगति के बारे में समझना काफी आवश्यक है जिससे मूलभूत आंकलित प्रारूप एवं आर्थिक समझ की संरचनाओं को समझा जा सके।
आर्थिक सिद्धांतों का अध्यापन करते समय केंद्र की धारणा यह थी कि इसे प्राप्त किये स्थापित सत्यों के रूप में या तार्किक अनुमान तथा निष्कर्षों पर पहुँचने के दिमागी व्यायाम के रूप में पढ़ाने की बजाय शिक्षक का प्रयास यह होना चाहिए कि विद्यार्थी को विवेचना से प्राप्त तर्क एवं निष्कर्ष की प्रक्रिया का महत्व समझाया जाए, जिनसे आर्थिक सैद्धांतिक निर्माण की नींव पड़ती है। अतः आर्थिक सिद्धांत के अध्यापन का प्राथमिक उद्देश्य ना सिर्फ इसकी तार्किक संरचना की व्याख्या करना है, बल्कि इसकी उत्पत्ति के सामाजिक-ऐतिहासिक सन्दर्भ पर भी प्रकाश डालना है। इस स्थिति में सौभाग्य से भारत में पहले से एक चलन है: हमारे अर्थशास्त्रियों ने नियोजित विकास के आंकलन में काफी योगदान दिया है। आधिकारिक सांख्यिकी एजेंसियों एवं निजी शोधकर्ताओं के क्षेत्र सर्वेक्षण के माध्यम से नित नए पर्यवेक्षणों के साथ असल क्षेत्र से मिलती जुलती सैद्धांतिक अवधारणा का निर्माण संभव हो गया है। अतः भारतीय अवस्था में केंद्र के फैकल्टी सदस्य सिद्धांत एवं विवेचना तथा शिक्षण एवं शोध का मिश्रण की आदर्श स्थिति में रहते हैं।
फैकल्टी के सदस्यों ने विद्यार्थियों को ना सिर्फ आंकलन की कठोर तकनीकों के साथ परिचित करवाने की, बल्कि उन्हें सैद्धांतिक एवं अनुभवजन्य वर्गों के बीच के सम्बन्ध को समझने के लिए प्रशिक्षण प्रदान करने की भी त्वरित आवश्यकता महसूस की। एक अच्छे अर्थशास्त्री को एक मूलभूत आंकलन कौशल की आवश्यकता होती है जो प्राप्त तथ्यों के आधार पर सिद्धांत निर्माण करना एवं अपनी सैद्धांतिक अवधारणा को विवेचित वर्गों में परिवर्तित करना है। ऐसा खासकर सैद्धांतिक सूत्रीकरण के विकास के कार्य में होता है जो हमारे जैसे विकासशील देश के लिए पूर्णतः उपयुक्त है। सैद्धांतिक निर्माण एवं विवेचित बुनियादों के बीच एक नियमित एवं कार्यशील सम्बन्ध होना पूर्णतः अपेक्षित है। एक प्रभावी अनुभवजन्य आंकलन की सैद्धांतिक नींव हमेशा मज़बूत होनी चाहिए,जबकि अर्थशास्त्र में बिना निष्कर्ष के ठोस कदमों की ओर सैद्धांतिक निर्माण, चाहे तुरंत हो अथवा नहीं, व्यर्थ है। अतः भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोर्सों की शुरुआत करते समय इस बात की चेष्टा की गयी है कि उन्हें घटनाओं का वृत्तान्त या तथ्यों की फेहरहिस्त के रूप में प्रस्तुत ना करके आर्थिक परिवर्तन के विषय को आंकलित अवस्था में सामने रखा जाए। ये इस कार्यक्रम के उद्देश्य थे।
(ए प्रोफाइल ऑफ़ स्कूल साइंसेज: सिल्वर जुबली कमेमोरेटिव वॉल्यूम, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, 1997 से लिया गया)